द्रौपदी : एक लोक चेतना
द्रौपदी : एक लोक चेतना
रागनी, समीक्षा और पुनर्पाठ
(हरियाणवी लोककाव्य में स्त्री-चेतना का पुनर्संस्कार)
कवि, संकलक, विश्लेषक:
आनन्द कुमार आशोधिया
(शाहपुर तुर्क, सोनीपत, हरियाणा)
प्रकाशक:
आनन्द कुमार आशोधिया
Avikavani Publishers इम्प्रिंट के अंतर्गत (Self-published)
ISBN: 978-93-344-4058-4
प्रकाशन वर्ष: 2025 | संस्करण: प्रथम
हरियाणवी लोककाव्य में महाकाव्य का पुनर्पाठ
हरियाणवी लोककाव्य की परंपरा में रागनी केवल गायन-विधा नहीं, बल्कि जनमानस की जीवित चेतना है। यह खेतों की माटी, समाज की स्मृति और लोकधर्म का स्वर है। किंतु इस परंपरा में स्त्री—विशेषतः महाकाव्य की नायिकाएँ—अक्सर या तो सौंदर्य-प्रतिमा बनी रहीं, या मौन पीड़ा का प्रतीक।
द्रौपदी, जो महाभारत की सबसे निर्णायक और ज्वलंत स्त्री पात्र है, हरियाणवी रागनी में अब तक पूर्ण स्वर नहीं पा सकी थी।
इसी रिक्ति को भरती है—
“द्रौपदी : एक लोक चेतना – रागनी, समीक्षा और पुनर्पाठ”
यह कृति केवल रागनियों का संग्रह नहीं, बल्कि लोक-ध्वनि में स्त्री-चेतना, धर्म, प्रतिरोध और आत्मबोध का गहन सांस्कृतिक दस्तावेज़ है।
रागनी की माटी में द्रौपदी की अग्नि
इस ग्रंथ में द्रौपदी को न तो केवल पाँच पतियों की पत्नी के रूप में देखा गया है, न ही मात्र अपमानित नारी के रूप में। कवि ने उन्हें 32 विभिन्न मनोभावों में—शौर्य, क्रोध, तपस्या, विवेक, करुणा और दार्शनिक स्वीकारोक्ति—के साथ लोकछंद में रूपायित किया है।
यह ग्रंथ द्रौपदी के तीन केंद्रीय आयामों को उभारता है—
1. शौर्य, अहंकार और प्रतिशोध की अनिवार्यता
स्वयंवर में कर्ण का तिरस्कार और सभा में दुर्योधन का उपहास—ये घटनाएँ केवल प्रसंग नहीं, बल्कि महायुद्ध की नींव हैं।
रागनी 2 से उद्धरण:
“भरी सभा में उस यज्ञसेनी नै, कहकै सूत पुकारा था
घूँट खून की पीकै रहग्या, यो माड़ा बखत बिचारा था”
वस्त्रहरण के पश्चात द्रौपदी का क्रोध निजी नहीं रहता—वह धर्म का संकल्प बन जाता है।
रागनी 14 (प्रतिशोध):
“जिस जँघा का करया इशारा, वा तन तै अलग धराऊँगी
तेरी छाती का रक्त काढ़कै, उस रक्त में केश रँगाऊँगी”
यह स्त्री की लज्जा को शक्ति में बदलने का लोक-घोष है।
2. धर्म को चुनौती देती तपस्विनी
वनवास में द्रौपदी केवल सहनशील नारी नहीं रहतीं—वे निष्क्रिय धर्म को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा करती हैं।
रागनी 21 (युधिष्ठिर से प्रश्न):
“इब जंगळ में तूँ बण्या तपस्वी, तनै राजधर्म का नाश करया
तेरा धीरज ना किसे काम का, पहलम ना अहसास करया”
यहाँ द्रौपदी धर्म की व्याख्याता बनती हैं—लोकचेतना की न्यायधुरी।
3. दार्शनिक विलाप और नियति की स्वीकारोक्ति
युद्धोत्तर शोक और महाप्रस्थान इस कृति को उच्च साहित्यिक धरातल पर प्रतिष्ठित करते हैं।
रागनी 31 (गांधारी के साथ विलाप):
“तेरे सौ पुत्र थे पाप के भागी, अरी मत रोवै गन्धारी माता”
और अंतिम सत्य—
रागनी 32 (महाप्रस्थान):
“द्रोपदी धरती पै पड़ गई, इब आखिरी न्याय सुणाणा था।
मैं हाड़-मांस की नारी थी, मन्नै मन का मोल चुकाणा था।”
यह द्रौपदी को देवी से पुनः मानव बनाती है—संघर्षशील, अपूर्ण, किंतु महान।
शास्त्रीय अनुशासन और लोक-सौंदर्य
यह ग्रंथ छंदशास्त्र (पिंगल), ताल और लोक-धुनों का सशक्त समन्वय प्रस्तुत करता है। प्रत्येक रागनी के लिए चयनित लोकप्रिय धुनें गंभीर प्रसंगों को भी जनभाषा में आत्मसात कर लेती हैं—यह कवि की अद्वितीय कलात्मक दृष्टि है।
🖋️ लेखक परिचय
आनन्द कुमार आशोधिया, सेवानिवृत्त भारतीय वायुसेना वारंट ऑफिसर, एक प्रतिष्ठित कवि, अनुवादक और लोक-साहित्य के गंभीर अध्येता हैं।
वे Avikavani Publishers के संस्थापक हैं और हरियाणवी, हिंदी एवं अंग्रेज़ी में 250+ से अधिक रचनाओं के रचयिता हैं।
निष्कर्ष
“द्रौपदी : एक लोक चेतना”
हरियाणवी लोककाव्य में स्त्री-चेतना के पुनर्पाठ की एक युगांतरकारी पहल है। यह कृति लोकध्वनि में धर्म, न्याय और नारी-अस्मिता के पुनर्मूल्यांकन का सशक्त साहित्यिक दस्तावेज़ है।
यह ग्रंथ आने वाली पीढ़ियों के लिए
लोक, स्त्री और इतिहास—तीनों का सांस्कृतिक साक्ष्य बनेगा।
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