मैं क्यूँ बनूँ एक और निर्भया?
सारे धरने, सरकारी वादे और कानून के बावजूद हर रोज एक और निर्भया
अब बहुत हो गया, इंसानियत से भरोसा खो गया, पानी सर से गुज़र गया
अब आप ही बताइये, मैं क्यूँ बनूँ एक और निर्भया?
इंसानी भेष में दरिंदे, विकृत मानसिकता के परिंदे, हैं मौके की तलाश में
यौन शोषण के कारिन्दे, वासना के अन्धे, लिप्त हैं विभत्स्ता और लाश में
अपनी आज़ादी, अपनी सुरक्षा का, मै खुद ही बनूँगी जरिया
तब आप ही बताइये, मैं क्यूँ बनूँ एक और निर्भया?
मेरी तरफ लपकते भेड़ियों को, अब मैं खुद ही धुल चटाउँगी
आत्मरक्षा का ले प्रशिक्षण, मैं खुद अपनी लाज बचाउंगी
किसी की बेटी, माँ बहिन किसी की, वधू किसी की और भार्या
फिर आप ही बताइये, मैं क्यूँ बनूँ एक और निर्भया?
इन शरीर के भूखे भेड़ियों को कोई पाठ पढ़ाये नैतिकता का
अबला नहीं मैं सबला हूँ, ले सबक नारी शक्ति और एकता का
ना हम भोग्या, ना हम कलियाँ, ना तितली ना परिया
निर्णय आप ही लीजिये, मैं क्यूँ बनूँ एक और निर्भया?
रचयिता : आनन्द कवि आनन्द कॉपीराइट © 2015-16
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