ना जाने क्यूँ
दूर खड़ी हो अधरों से खुद ही मुस्कराए जा रही है
प्यारी सी मनमोहक अदा लिए मन को रिझा रही है
ना जाने क्यूँ फिर भी पास आने से हिच किचा रही है
तुम बांधो तारीफों के पूल फिर हो के खुश भी क्या करना
जब तुम ही हासिल नहीं जग में तो ऐसे जहाँ का क्या करना
अब आके गले लगाले मौत फिर घुट घुट जी के क्या करना
नदी के मुहाने पे खड़ा सोचता हूँ की वो धारा कब आएगी
जब लाएगी चैन ओ सुकून और ज़िन्दगी महकाएगी
खुदा करे वो दिन जरूर आये और मेरे इस सपने को साकार कर जाए
या तो नदी ही किनारे से दो चार हो जाए या खुद किनारा ही नदी में समा जाए
रचयिता : आनन्द कवि आनन्द कॉपीराइट © 2015-16